टीकाकरण या प्रतिरक्षाकरण
मानव शरीर में रोगो या रोगो के जीवाणुओं से लड़ने की क्षमता प्राकृतिक रूप से होती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते है । रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु आदि ज्यों ही शरीर में प्रवेश करते है हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है और रोगाणुओं पर कोशिकाओं व् विशेष प्रकार के पदार्थो द्वारा आक्रमण कर दिया जाता है।
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Vaccination
Schedule
रोगाणुओं के अत्यधिक बलवान होने पर या शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने या पूर्ण रूप से विकसित न होने पर रोगाणु बढ़ते रहते हैं, जिससे मनुष्य या बच्चा बीमार हो जाता है। बच्चो में प्रायः रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाते है या पूर्ण रूप से विकसित नहीं होती है । जिससे बच्चे विभिन्न प्रकार के संक्रमण से शीघ्र ही प्रभावित हो जाती है और उन्हें विभिन्न प्रकार के रोग हो जाते है । इन संक्रमण रोगो से बच्चो को बचाने के लिए कुछ जीवाणु या विषाणुओ को इस प्रकार परिवर्तित किया जाता है की उनकी रोग उत्पन्न करने की क्षमता नष्ट हो जाती है लेकिन वे शरीर के सुरक्षा तन्त्र को उत्तेजित कर सकते है । विशेष प्रकार की प्रयोगशाला में जीवित क्षीण किये गये मारे गये सूक्ष्म जीवो (जीवाणु, विषाणु आदि ) उनके जीवविषो अथवा उनसे निकाले गये पदार्थ द्धारा एक निलम्बन तैयार किया जाता है, जिसे टीका कहते है । इस टीके को विभिन्न मार्गो से शरीर में प्रवेश कराते है (जैसे – मुँह द्वारा या माँस में इंजेक्शन द्वारा) जिससे बच्चो में होने वाले संक्रमण रोगो से बचाव होता है या उनकी अथवा टीकाकरण अनुसूची चिकित्सा होती है । शरीर में टीके को प्रवेश कराने की प्रक्रिया को टीकाकरण कहते है ।
वैक्सीन (टीको) द्धारा रोकी विभिन्न प्रकार के जा सकने वाली बीमारियाँ ( vaccine preventive diseases ) :- संक्रामक रोग जो की बच्चो के लिए बहुत ही घातक या जानलेवा होते है, उनको द्धारा रोका जा सकता है । इनमे से मुख्य रोग निम्न प्रकार है
वैक्सीन के प्रयोग
पोलियोमायलाइटिस
क्षय रोग
खसरा
डिप्थीरिया
काली खाँसी
टिटेनस
इन बीमारियों के अतिरिक्त हिपैटाइटिस – बी, मोतीझार , मम्पस, इन्फ़्लूएन्जा, जापानी मस्तिष्कशोथ, हैजा, रैबीज, छोटी माता आदि रोग में भी टीका का प्रयोग किया जाता है ।
सामान्य वैक्सीन एवं रोग
भिन्न – भिन्न प्रकार के रोगो में भिन्न-भिन्न के टीको का प्रयोग होता है। मुख्य रूप से प्रयोग होने वाले टीके एवं उनसे संबन्धित रोग निम्न प्रकार है-
जन्म के बाद कोनसे जरुरी टिके है जो नवजात शिशु को दिये जाते है ?
(1) बी सी. जी. (b. cg.) :- यह टीका क्षय रोग के विरूद्ध प्रयोग किया जाता है। इस टीके में क्षय रोग के कमजोर जीवित जीवाणु उपस्थित रहते है । यह टीका सूखे पदार्थ के रूप में उपलब्ध होता है। इस टीके को द्रव में घोल कर टीकाकरण हेतु तैयार करते है। इस टीके को एक छोटी सी सूई से (0.1 ml की मात्रा में ) कन्धे की त्वचा की ऊपरी सतह में लगाया जाता है । इस टीके को यक्ष्मा (TsB.) के प्रति सक्रिय रोग क्षमता उत्पन्न करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है । जन्म के कुछ समय बाद ही इस टीके का प्रयोग करते है ।
(2) डी. पी. टी. ( d. pt.) :- इस टीके का प्रयोग डिफ्थीरिया, टिटनेस तथा काली खाँसी के प्रति सक्रिय रोग क्षमता उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। इसमें काली खाँसी के मृत जीवाणु तथा डिफ्थीरिया एवं टिटेनस के रोगाणु से उत्पन्न जीवविष द्रव रूप में होता है । इसे अन्तः पेशीय जाँच में लगाया जाता है । मात्रा – 0.25ml से 0.5ml तक दी जाती है । इसकी पहली खुराक 6 सप्ताह की आयु में देते हैं। दूसरी और तीसरी खुराक एक – एक महीने के अन्दर से देते है। फिर 12 से 18 माह बाद बूस्टर डोज दी जाती है।
(3) डी. टी. (d. t. ) :- यह टीका डिफ्थीरिया एवं टिटेनस के प्रति सक्रिय रोग क्षमता उत्पन्न करने के लिए प्रयोग किया जाता है ।
(4) टी. टी. (t. t.) :- यह टीका टिटेनस के प्रति सक्रिय रोग क्षमता उत्पन्न करने के लिए लगाया जाता है। यह रोग नवजात शिशुओं में बहुत पाया जाता है। अधिकांश बच्चे इस रोग के कारण मर जाते है । यह एक बहुत ही घातक रोग है।
(5) ओ. पी. वी. (o. p. v) :- इस टीके का प्रयोग पोलियो रोग के प्रति सक्रिय रोग क्षमता उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। यह तीन प्रकार के जीवित पोलियो विषाणुओं को क्षीण करके तैयार किया जाता है। इस टीके का प्रयोग मुँह द्वारा किया जाता है। बच्चे को इसकी कम से कम तीन खुराक पिलाई जाती है। पहली खुराक के बाद दूसरी खुराक 4 या 6 हफ्ते के बाद दी जाती है, फिर तीसरी खुराक 4 या 6 हफ्ते के अन्दर से पिलाई जाती है । खुराक पिलाने के आधा घण्टा पहले और खुराक पिलाने के आधा घण्टे बाद तक मुँह द्धारा कोई भी दूसरी वस्तु नहीं दी जाती है । इस टीके की केवल दो बूँदें ही पिलाई जाती है। जिन बच्चो को पोलियो का रोग हो चुका है, उन बच्चो को भी पोलियो वैक्सीन की खुराक अवश्य पिलानी चाहिए। गम्भीर रूप के दस्त होने की स्थिति में या कोई अन्य तीव्र रोग की अवस्था में यह वैक्सीन नहीं दी जाती है । यह वैक्सीन प्रायः पूर्ण रूप से सुरक्षित है । इसके प्रयोग से कोई उपद्रव नहीं होते हैं ।
इस टीके की अधिकतर सात खुराक दी जाती है । पहली 5 खुराके जन्म से पहले साल में पिला दी जाती है। पहली खुराक जन्म के समय दी जाती है । इसके बाद दूसरी खुराक 6 सप्ताह बाद फिर 10 सप्ताह बाद फिर 14 सप्ताह बाद फिर 9 माह बाद देते है। दूसरे साल में बच्चे को बूस्टर खुराक देते है, फिर इसके बाद 5 वीं साल में एक और बूस्टर डोज दी जाती है ।
खसरा वैक्सीन (measles vaccine) :- यह वैक्सीन खसरे के रंग के प्रति सक्रिय रोग क्षमता बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है । यह सूखे चूर्ण के रूप में उपलब्ध होती है। इसके साथ अलग से विलायक रहता है। खसरे के कमजोर जीवित वायरस रहते हैं यह टीका भुजा के ऊपरी भाग में त्वचा की ऊपरी सतह में दिया जाता है। इसकी 10 खुराकें की एक वायल डिस्टिल वाटर के साथ उपलब्ध होती है । यह 0.5 ml की मात्रा में त्वचा के नीचे लगाया जाता है। इस टीके को पानी में घोलने के बाद 4 घण्टे के अन्दर प्रयोग कर लेना चाहिए । यह टीका 9 महीने की आयु के बाद ही प्रयोग करना चाहिए। इस टीके की एक खुराक ही दी जाती है। बूस्टर डोज देने की आवश्यकता नहीं होती है।
अन्य टीके (other vaccines)
निम्नलिखित टीके भी आवश्यक होते है, परन्तु ये सरकार द्वारा प्रदान नहीं किये जाते है, क्योकि ये राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल नहीं है।
ऍम ऍम. आर. वैक्सीन (m.m.r. vaccine ) :- इस वैक्सीन का प्रयोग खसरा, गलसूए, और रूबैला रोगो के प्रति सक्रिय रोग क्षमता उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। इस टीके में तीनों रोगों के कमजोर जीवित विषाणु होते हैं। यह सूखे चूर्ण के रूप में उपलब्ध होता है। इस टीके को भुजा के ऊपरी भाग में त्वचा के नीचे 15 माह की आयु के बाद कभी भी लगाया जा सकता है।
हिपैटाइटिस – बी वैक्सीन ( hepatitis – b vaccine) :- इस वैक्सीन का प्रयोग यकृतशोथ (पीलिया ) के विरूद्ध सक्रिय रोग क्षमता उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। यह एक डी. एन. ए. पुर्नसंयोजित संश्लेषित वैक्सीन है। 10 वर्ष से कम आयु वाले बच्चो में तथा 10 वर्ष से अधिक आयु वाले बच्चो में 0.5ml (10 mg) की मात्रा को अन्तः पेशीय डेल्टॉइड पेशी में लगाया जाता है। यह टीका जन्म के बाद जितना शीघ्र सम्भव हो लगवा देना चाहिए या जन्म के समय ही लगाव देना चाहिए। दुसरा टीका एक माह बाद तथा तीसरा टीका पहली खुराक 6 माह बाद लगाना चाहिए। इसे बी. सी. जी. के साथ देने पर दोनों को अलग – अलग भुजा पर लगाना चाहिए।
टायफाइड वैक्सीन (typhoid vaccine):- यह टायफाइड या मोतीझरा से सुरक्षा करता है। वर्तमान में तीन
प्रकार की टायफाइड वैक्सीन उपलब्ध है –
होल सेल वैक्सीन – यह वैक्सीन एस. पैराटायफी – ए और एस. पैराटाइफी – बी जीवाणुओं के अन्दर पाए जाने वाले जीवविष से तैयार किये जाते है। इसे टैव वैक्सीन भी कहते है। इस टीके की दो खुराकें त्वचा के नीचे एक माह के अन्दर से दी जाती है। इस टीके की मात्रा छोटे बच्चे में तथा 10 वर्ष से अधिक आयु वाले बच्चे में 0.5 होती है। प्रत्येक तीन वर्ष में बूस्टर डोज देनी पड़ती है।
पोलीसैकेराइड वी आई टायफाइड वैक्सीन – इस वैक्सीन में शुद्धिकृत वी आई कैप्सूल पोलीसैकेराइड होता है। इसकी मात्रा 0.5ml मांस में (I/M), एक वर्ष में एक बार होती है। तीन से 5 वर्ष के बाद पुनः इसकी एक खुराक दे सकते है । दो वर्ष से अधिक आयु होने पर ही इस टीके का प्रयोग करते है।
ओरल टाइफाइड वैक्सीन – इस वैक्सीन में जीवित कमजोर किये हुये एस टायफी होती है, यह कैप्सूल के रूप में उपलब्ध होता है। इस कैप्सूल को तोड़कर प्रयोग नहीं करते है, साबुत ही निगल लिया जाता है। 6 वर्ष से कम आयु के बच्चे इसे नहीं निगल सकते है । इसके 3 कैप्सूल पहले, तीसरे, व पाँचवे दिन पानी से देते है । प्रत्येक तीन वर्ष के बाद 3 कैप्सूल इसी तरह बूस्टर डोज के रूप में देते है।
हिब वैक्सीन – यह वैक्सीन मैनिन्जाईटिस, एपीग्लोटाइटिस (कण्ठच्छद का शोथ) एवं निमोनिया के प्रति प्रतिरोधकता प्रदान करता है । इस वैक्सीन की 0.5cc मात्रा मांसपेशी में लगाई जाती है। इसके तीन इंजेक्शन 1 – 2 माह अन्तराल पर (आमतौर पर dpt के साथ 6, 10 एवं 14 वें सप्ताह पर) लगाए जाते है । इसके एक साल के बाद एक बूस्टर डोज दिया जाता है। आजकल dpt + hib +ipv, dpt + hepatitis b आदि के वैक्सीन संयुक्त रूप से बाजार में उपलब्ध है।
शीत श्रृंखला- शीत श्रृंखला वैक्सीन के भण्डारण तथा वैक्सीन को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने की प्रणाली । जिसमे वैक्सीन को अनुकूलतम तापक्रम पर रखा जाता है, अर्थात वैक्सीन के निर्माण स्थल से लेकर उपयोग स्थल तक की शीतलता कायम रखने की कड़ी को शीत श्रृंखला कहते है । टीके की प्रभावशीलता बनाये रखने के लिये इन्हे पर रखना होता है, अन्यथा ये अप्रभावी हो जाते है । सही श्रृंखला बनाये रखने के लिये कई तरह के फ्रिज व कोल्ड बॉक्सेज प्रयोग किये जाते है, जिनमे टीको को व्यवस्थित क्रम में रखा जाता है । पोलियो एवं खसरा के टीके को सबसे अधिक ठण्डे भाग में रखा जाता है । D.P.T.,/D.T. के टीको को जमने नहीं देना चाहिए, इसलिए इन्हे बर्फ के सीधे सम्पर्क से दूर रखा जाता है। व अन्य दवाओं को को सूर्य के प्रकाश के सम्पर्क से बचाना चाहिए।
टीकाकरण के विपरीत प्रभाव – प्रायः टीकाकरण के बाद बहुत कम विपरीत प्रभाव देखे जाते है, यदि होते भी है तो वे बहुत गम्भीर नहीं होते है । फिर भी टीकों का प्रयोग भी अन्य दवाओं की तरह खतरों से खाली नहीं होता है। कुछ वैक्सीनों के प्रयोग से गम्भीर दुष्प्रभाव भी हो जाते है जैसे ओरल पोलियो वैक्सीन (opv) के प्रयोग से पक्षाघातिक पोलियो होना या होलसेल परटूसिस वैक्सीन के प्रयोग से एनसीफैलोपैथी [ मस्तिष्क रोग ] का होना आदि ।
टीके कुछ मुख्य विपरीत प्रभाव निम्न प्रकार है
डी. पी. व टाईफाइड के टीके लगाने के बाद हल्का बुखार हो जाता है तथा टीके है। बी. सी. जी. का टीके लगाने के तीन या चार सप्ताह बाद टीके के स्थान पर है, जो कभी फुट भी जाती है 10 12 सप्ताह बाद केवल निशान रह जाता है। कुछ व्यक्तिओ में बच्चो में उनकी त्वचा पर हल्की सी खराश हो सकती है टीके बन सकता है। कुछ बच्चो में टीके के प्रयोग के बाद बेचैनी भी हो जाती है। ऍम ऍम. आर वैक्सीन देने से ज्वर व दाने हो सकते है।
कुछ एक टीके के देने से एक गाँठ सी बन जाती खसरे के टीके के बाद के स्थान पर चकत्ता की जगह पर दर्द होता है। तेज बुखार, ऐठन, इंजेक्शन के स्थान पर घाव, फोड़ा अथवा लालमी होना, वमन होना तीव्र एलर्जी जैसी व्याधियाँ उत्पन्न हो सकती है, जिनका उचित प्रकार से उपचार करना चाहिए |
निषेध
तीव्र ज्वर की अवस्था में टीकाकरण नहीं किया जाता है। जीवित विषाणु से निर्मित वैक्सीन का प्रयोग भी विशेषकर श्वेतरक्तता / ल्यूकैमिया लसीकाबुर्द / लिम्फोमा कैंसर, लिम्फोसाइट कोशिकाओं की अल्पक्रियता से संबन्धित रोग आदि बच्चो का अन्डे चिकन या नीयोमायसिन से संवेदनशील होने की स्थिति में. सगर्भा स्त्री में वैक्सीन देने से पहली स्थिति का मूल्यांकन अति आवश्यक है। यदि किसी बच्चे में डी. पी. टी. की वैक्सीन देने से दुष्प्रभाव हो चुका हो तो उसे इस परिस्थिति में वैक्सीन नहीं दे सकते है।
पल्स पोलियो इम्यूनाइजेशन:- यह एक प्रतिरक्षण की व्यूह रचना है, जिसमे 5 बर्ष से कम आयु वाले बच्चो को ओरल पोलियो वैक्सीन की निश्चित तारीख पर एक-एक महीने के अन्दर से तीन अतिरिक्त खुराकें पिलाई जाती है इसकी योजना प्रायः सर्दी के मौसम में ही बनाई जाती है क्योकि इस मौसम में आंत्रिक विषाणु संक्रमण बहुत ही कम पाया जाता है, इसलिए सर्दी का मौसम ही इस कार्य के लिए अधिक उचित होता है। जिन बच्चो को ओरल
पोलियो वैक्सीन पिला दी जाती है, उन बच्चो की आँतो से पोलियो के विषाणु बाहर निकल जाते है। यदि सभी बच्चो को एक ही दिन ओरल पोलियो वैक्सीन पिला दी जाए तो पोलियो के विषाणुओ को किसी भी बच्चे की आँतो में आश्रय नहीं मिलता है और यह विषाणु मानव शरीर के बाहर बहुत समय तक जीवित नहीं रह पाता है, जिससे सारे विषाणु मर जाते है।